कुमाऊँ कि बैठकी होली अपने आप में एक अतुलनीय कला
अमित पन्त, कुमाऊंनी होली प्रेमी और गायक
यह तो सर्वविदित है की रंगों के त्यौहार होली पुरे देश भर में बहुत ही हर्ष उल्लाष से मनाया जाता है. फाल्गुन माह में मनाये जाने वाला यह त्यौहार हर राज्य में अलग अलग ढंग से मनाया जाता है. कहीं लठ मार होली तो कहीं फूलों से होली , पर उत्तराखंड राज्य के कुमाऊँ क्षेत्र में होली अपने ही अलग अंदाज़ से मनाई जाती है. कुमाऊंनी होली का एक अलग ही रंग है जो पूरे विश्व में इस होली की अलग पहचान देता है, मुख्य रूप से कुमाऊं में होली को अनेकों भाग में बांटा गया है जैसे बैठकी होली, खड़ी होली, महिला होली, छलड़ी व होली का टिका.
बैठकी होली: पौष माह के प्रथम रविवार से प्रारम्भ होने वाली यह विधा अपने आप में अनूठी है. एक कमरे में पुरुष बैठ कर होली गायन करते हैं. बैठकी होली शास्त्रीय संगीत पर आधारति होती है. बैठकी होली में हारमोनियम, तबला, वायलन, सितार, मंजीरा व बांसुरी जैसे वाद्य यंत्रों का इस्तेमाल किया जाता है. राग काफी, जंगला, खमाज, देश, परज, पीलू, जैजैवंती, सुहाना, विहाग, मालकोश, धमार, भैरवी, झिझोटी, श्याम कल्याण आदि की बंदिशें का गायन होता है. इन रागों के साथ साथ ठुमरी, ख्याल, कजरी भी गाने का चलन है. यह राग इनके समय अनुसार गाये जाते हैं. इन महफ़िलों की खास बात है है की गायक जिससे होलियार कहा जाता है तो गाता ही है पर बीच बीच में सुनाने वाला भी अपनी आवाज़ से अपनी उपस्थिति दर्ज करवाता है जिससे भाग लगाना कहते हैं. १६ मात्रा का तबले का ठेका बजाया जाता है. पौष माह के प्रथम रविवार से बसंत पंचमी तक भगवान व भक्ति की बंदिशें गायन में होती हैं, बसंत पंचमी से होलिका दहन तक रंग, छेड़ छाड़, रास, विरह की बंदिशें भी गाई गायन में होती हैं. शिवरात्रि के बाद अबीर गुलाल भी महफ़िल में लाया जाता है और सभी होली प्रेमियों को लगाया भी जाता है. यह विधा की शुरुवात कब से हुई इसका कोई ठोस प्रमाण तो नहीं है पर कहा जाता है की पहले के समय में जब टेलीविज़न जैसे मनोरंजन के साधन नहीं थे और जाड़ों की रात लंबी होती थी तो समय काटने के लिए हमारे बुजुर्गों ने यह साधन को अपने मनोरंजन का केंद्र बनाया तब से ही यह चलन में आ गया. आजकल ऐसी महफ़िलों का आयोजन थोड़ा काम हुआ है परंतु होली प्रेमी अभी भी अपने घरों में ऐसी महफ़िलों का आयोजन करवाते ही हैं. मुख्य रूप से अल्मोड़ा, नैनीताल, रानीखेत, बागेश्वर, गंगोलीहाट, पिथौरागढ़, हल्द्वानी, रुद्रपुर में ऐसे आयोजन होते ही हैं. इसके अलावा कुमाऊनी समाज दिल्ली व लखनऊ में भी ऐसे आयोजन करवाते ही हैं. अल्मोड़ा के हुक्का क्लब, त्रिपुरा सुंदरी क्लब , रानीधारा साईंक्लब व हल्द्वानी के उत्थान मंच को इस धरोहर को बचाने का श्रेया जाता है. स्वर्गीय तारा प्रसाद पांडेय (अल्मोड़ा), स्व शिवचरण पाण्डेय, स्व चारू चन्द्र पन्त, स्व खिला नन्द पन्त, स्व जगन्नाथ सनवाल आदि को इस विधा का गुरु मन जाता है. बैठकी होली की महफ़िल समापन पर आशीर्वाद राग भैरवी की हो मुबारक मंजरी फूल भरी ऐसी होली खेलें जनाब अली से ली जाती है (जो शिवरात्रि के बाद से ही होता है). अल्मोड़ा में इस कला को दिनेश पाण्डेय, निर्मल पन्त, अनिल सनवाल, जीवन चन्द्र जोशी, धीरेन्द्र भारती, पंडित हंसा दत्त कांडपाल, तुषार कान्त शाह, धरणीधर पांडेय, मनीष पांडेय, महेश पन्त, अशोक पांडेय, धीरेन्द्र मोहन पन्त, भूपेंद्र मोहन पन्त, चिरंजीव लाल वर्मा, कमल पन्त, अमरनाथ भट्ट, दीप जोशी, राघव पन्त व अन्य सहोजे हुए हैं. हल्द्वानी में जीवन चन्द्र पन्त, सँजय जोशी, डॉ पंकज उप्रेती समेत अनेक कलाकार इसको बढावा दे रहे हैं. रुद्रपुर में अधिवक्ता दिवाकर पाण्डेय , हेम चन्द्र पाण्डेय जैसे होली प्रेमी इसको आगे ले जा रहे हैं. इसी प्रकार से पिथोरागढ़, रानिकेट, गंगोलीहाट, बागेश्वर , चम्पावत में भी इसके आयोजन होते हैं.
दिल्ली में कुमाऊँ के जाने माने गायक स्व चंचल प्रसाद के पुत्र प्रदीप प्रसाद और संजय प्रसाद इस कला को आगे ले जा रहे हैं. इसी प्रकार लखनऊ के नीरज पन्त भी अपने साथियों के साथ इसका आयोजन करते हैं.
कुछ बंदिशें
राग धमार: चमकत हो चपला सी आज तुम निकी बानी हो प्यारी होलीं में..
राग काफी: नथुली में उलझेंगे बाल सिपया काहे झुलफें बड़ाई, सबको मुबारक होली बरस निकी घडी अलबेली..
राग जंगल काफी: जहाँ ऐसे रंग ढंग देखो बचेगी हो लाज ऐसे ब्रिज के बसन से में आयी..
राग खमाज: अपनों ही रंग में रंग दे मौला साहिब मोरा तू तो गरीब नवाजे…
चीर बांधना: फाल्गुन सुदी ११ को चीर-बंधन किया जाता है। कहीं-कहीं ८ अष्टमी कोचीर बाँधते हैं। कई लोग आमलकी ११ का व्रत करते हैं। इसी दिन भद्रा-रहित काल में देवी-देवताओं में रंग डालकर पुन: अपने कपड़ों में रंग छिड़कते हैं, और गुलाल डालते हैं। इसके अलावा कहीं कहीं (किसी मोहल्ले, या मंदिर में) पैयां के पेड़ की एक शाख काट कर लगाई जाती है जिसमें हर घर से लोग अपने अपने परिवार के सदस्यों के नाम का कपडा बांधते हैं जिससे ही चीर बांधना कहा जाता है. पूर्णिमा के दिन चीर जलाई जाती है. इस पर गीत है: कैले हो बंधी चीर हो रघुनन्दन राजा.
खड़ी होली: यह होली रागों पर आधारित नहीं होती. महिला व पुरुष दोनों ही इसमें हिस्सा ले सकते हैं. खुले आसमान में यह गायन होता है, चीर बंधन के बाद ज्यादा सुनाई देता है. ढोलक और मंजीरे में लोग झूम झूम कर इसका गायन करते हैं. फाल्गुन की एकादशी से धुलेंडी (छलड़ी) तक इसका गायन होता है. मुख्य गाने: हाँ हाँ हाँ मोहन गिरधारी, नदी जमुना के तीर कदम छड़ी कान्हा बजाय गयो बंसुरिया, गुजरिया बरसाने की व अन्य.
छलड़ी: फाल्गुन की पूर्णिमा को होलिका दहन के पश्चात अगले दिन होली खेली जाती है, अपने नाते रिश्तेदारों व मित्रों के घर होली मिलने जाया जाता है इसी को कुमाऊं में छलड़ी कहते हैं. हर मोहल्ले में पुरुष व महिला अपनी टोली बना कर ढोलक मंजीरे के साथ खड़ी होली गाते हुए सब के घर जाते हैं और आशीर्वाद देते हैं:
हो हो होलक रे, बरस दिवाली बरसे फ़ाग, जो नर जीवे खेले फाग, आज का बसंत कई का घर, आज का बसंत (परिवार के मुखिया का नाम), इन नाना तीन पूत परिवार सब जी रौ लक्षे भरी, हो हो होलक रे
टोली का स्वागत अबीर गुलाल, पैन सुपारी, शरबत, आलू, गुजिया से किया जाता है.
होली का टिका: छलड़ी के अगले दिन होली का टिका होता है जिसमें भाभी अपने देवर व साली अपने जीजा को तिलक लगा कर उनकी लंबी उम्र की कामना करती हैं और देवर व जीजा अपनी भाभी व साली को उपहार देते हैं. होली का टिका के दिन जगह जगह होली मिलान व कवी सम्मलेन के भी आयोजन किये जाते हैं.
होली के व्यंजन: आलू के गुटके, भांगे की चटनी, पुदीने की चटनी, छोले व गुजिया.